BHOPAL. महिलाओं को माहवारी के समय हो रही पीड़ा और माहवारी से सम्बंधित मानसिक प्रभावों पर लेखिका हेल्थ साइकोलोजिस्ट और सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं शोध अध्येता डॉ प्रिया जैन ने बड़े ही विस्तार से एक लेख लिखा है जिसे आज हम आपको दिखाने जा रहे है।
अभी कुछ महीनों पहले बड़े ज़ोर शोर से भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर सोशल मीडिया , कॉर्पोरट और विभिन्न देशों की न्यायपालिकाओं में पुनः एक मुद्दा उठा था कि क्या महिलाओं को ” पेड पीरियड लीव ” दी जानी चाहिए ..? एक वर्ग इसके पक्ष में था और एक बड़ा वर्ग इसके विरोध में अपने स्वर मुखरित कर रहा था। विरोध में स्वर उठाने वालों में कई नामचीन महिलाये, स्त्री विमर्श विशेषज्ञ भी शामिल थे। आपकी राय भी इसमें अलग अलग हो सकती है।
बहुत से लोग समाज में और घर में उन दिनों के भेदभाव के कारण बच्चियों खास कर जिनकी माहवारी हाल ही में शुरू हुई है उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर गंभीरता से सवाल उठाते है और ये सवाल सर्वथा उचित भी हैं। कोविड के दौरान बहुत सी राहत सामग्री जरूरत मंदों को सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों के माध्यम से दी गयी थी पर उस राहत सामग्री की किट में कहीं भी मासिक धर्म प्रबंधन की सामग्री उपलब्ध नहीं दिखी। उस दौरान सोसाइटी फॉर आइडियल ग्लोबल नीड्स के एक एडवोकेसी अभियान किए लिए डॉ. आलोक चौबे की एक कविता का उल्लेख करना चाहूंगी जो इस विषय पर समाज और संस्था की संवेदनशीलता के सन्दर्भ में प्रासंगिक है।
“पाबंदियां लाज़िमी थीं, महामारी को रोकने
बाहर निकलने पर, पास के जनरल स्टोर जाने पर
जान पहचान के मेडिकल स्टोर जाने पर
खुद का निकलना, उतना आसान नहीं था उन दिनों
और पुरुष अभी भी, संवेदनशील उतने नहीं हैं
सरकारों की तरह, जो समझ सकें
कि महीने के राशन के अलावा
चाहिए होता है महीने के
उन दिनों का इंतज़ाम भी….
नौकरी ,काम धंधा बंद होने पर
प्राथमिकता में नहीं रहा
स्त्रीत्व के वरदान का संरक्षण
उपेक्षित रहा प्रकृति की तरह “
क्या वाकई उपेक्षित है यह विषय या इस विषय में अलग तरह की संवेदनशीलता जरुरी है ? पर क्या “पीरियड लीव ” कुछ उसी तरह का ट्रीटमेंट नहीं होगा जैसा तथाकथित सामाजिक भेदभाव की प्रवृत्ति के कारण घर के कार्यों से ,रसोई से दूरी , पूजा न करना , सामाजिक आयोजनो में न जाना आदि आदि.. कई ऐसे मुद्दे हैं जिनके खिलाफ बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाए अभियान चलाये हुए हैं । वैश्निक स्तर पर कार्य वातावरण और कार्य संस्कृति में भी कोविड के बाद लगातार बदलाव हो रहे हैं। इन बदलावों में जेंडर संवेदनशीलता के सम्बन्ध में अंतर्राष्ट्रीय अभियानों का प्रभाव भी है , जो एक अच्छी बात है । ये सारे अभियान विविधताओं ,समानता एवं समावेशीकरण के इर्द गिर्द हैं जो मनोसामाजिक व्यवहारों , कार्यस्थलों और पर्यावरणीय सुधारों के लिए संकल्पित हैं।
वास्तविकता में इस विषय पर सामाजिक जागरूकता काफी बढ़ी पर इसके बावजूद मासिक स्वच्छता प्रबंधन सम्बन्धी आवश्यक सेवाओं की बहुत कमी है। जब हम बच्चियों से इस कारण स्कूल से ड्राप आउट या उन दिनों में स्कूल न जाने के विषय में बात करते हैं तो पाते हैं कि बच्चियों के लिए आज भी पृथक शौचालय , जिसमे पानी, साबुन से हाथ धोने की सुविधा , माहवारी प्रबंधन हेतु उपयोग में लाये गए साधन के निस्तारण की सुविधा हम नहीं दे पाए हैं। बच्चियों को मानसिक तनाव के कारण आखिर हैं क्या .? शायद इस वजह से स्कूल न जा पाना।
अब बात करते हैं कामकाजी महिलाओं की ….माहवारी के दिनों में महिलाओं को शारीरिक परेशानी, पीड़ा और इसके कारण मानसिक तनाव का अनुभव होता है , युवतियों को हार्मोनल परिवर्तन के कारण भी अन्य तरह की दिक्क्तों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कार्यस्थल पर अपने कार्य निष्पादन के दौरान पुरुष सहकर्मियों के समान उत्पादकता शायद प्रभावित भी होती हो तो उस दौरान हमारे कार्यस्थल और कार्यप्रभारी अधिकारी जिसमे पुरुष और महिलाये दोनों ही सम्मिलित हैं क्या संवेदनशीलता का परिचय देते हैं ? क्या श्रम विभाग की या कॉर्पोरेट्स की मानव संसाधन नीतियों में यह संवेदनशीलता स्वीकार्य है…. ?
बड़े कॉर्पोरेट ऑफिस या राज्य स्तरीय कार्यालयों और शॉपिंग मॉल्स को छोड़ दें तो अधिकांश जगह मासिक स्वच्छता प्रबंधन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं की स्थितियां खराब ही हैं । कार्यालयों की , मार्केट एरिया की , पार्क की हैं। बहुत कम जगह सिक रूम या रेस्ट रूम हैं जहाँ पीरियड के दौरान महिलाएं कुछ समय कार्यावधि में बिता सकें। ऐसे में पीरियड लीव की अवधारणा, स्वीकार्यता और अनुपालन की कल्पना कठिन प्रतीत होती है यद्यपि ” जापान , वेल्स, स्पेन, यूनाइटेड किंगडम, , चीन, ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, और जाम्बिया जैसे कुछ देशों में पहले से ही किसी न किसी रूप में मासिक धर्म के दौरान छुट्टियों का प्रावधान है. और तो और संभवतः 1992 में बिहार बिहार सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना एवं वहां गठित बिहार विकास मिशन के दस्तावेजों में महिला कर्मचारियों के लिए 2 दिवस का विशेष अवकाश लेने की पात्रता का ज़िक्र है। बहुत पहले केरल में वार्षिक परीक्षाओं के दौरान माहवारी के कारण परीक्षा न दे पाने की स्थिति में बाद में परीक्षा देने की अनुमति प्रदान करने का सन्दर्भ भी शोध के दौरान पढ़ने को मिला है ।
भारत की संसद में लोकसभा के समक्ष 2017 अरुणाचल प्रदेश के एक सांसद ने मासिकधर्म लाभ विधेयक रखा गया था किंतु उस पर चर्चा नहीं हो सकी थी। अरुणाचल प्रदेश की विधान सभा में भी 2022 में लगभग इसी मंशा के प्रस्ताव पर चर्चा का प्रयास किया गया था जो सफल नहीं हुआ। मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अवकाश से सम्बंधित एक जनहित याचिका के प्रतिउत्तर में उठे सवाल पर केंद्रीय मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में कहा कि “केंद्रीय सिविल सेवा (छुट्टी) नियम 1972 में मासिक धर्म की छुट्टी के लिए कोई प्रावधान नहीं है।” कुछ कार्यालयों में संवेदनशीलता दर्शाते हुए मासिक धर्म के दौरान सिक लीव (बीमारी के कारण लिया जाने वाला अवकाश ) लेने की पात्रता नियमानुसार है। पर यह भी नया सवाल पैदा करता है कि क्या मासिक धर्म कोई बीमारी है .? मेडिकल साइंस कहता है ..नहीं …. मासिक धर्म प्रजनन चक्र का प्राकृतिक हिस्सा है….बीमारी नहीं । कुछ देशों में प्रत्येक कार्यालय में 2 साथी महिला कर्मचारियों को अवगत कराकर उस अवधि में एक से तीन कार्यालयीन दिवसों में अनुपस्थित रहने की या पेड लीव का वैधानिक प्रावधान है। सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं के अंतर्गत भी इस तरह के प्रावधान कई देशों में किये गए हैं।
बहरहाल अलग अलग देशो की सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों के कारण जेंडर समानता के विषय पर संवेदीकरण और जनपैरवी की दिशा और दशा अलग है किन्तु वैश्विक स्तर पर मानव के जन्म के लिए आवश्यक माहवारी की दिनों और तकलीफों में कोई भिन्नता नहीं हैं। सामाजिक और राजनैतिक स्थितियां यदि पूरी संवेदनशीलता के साथ विचार कर काम करे तो स्त्री हित में पूरे तंत्र को प्रभावित कर सकारात्मक और संवेदनशील वातावरण का निर्माण कर सकता हैं। सरकार ,समाज और नियोक्ता यदि मासिक धर्म के प्रबंधन का सही उपाय करते है जिसमें आवश्यक सुविधाओं , नीतियों , क्षमतावृद्धि एवं समानता हेतु अवसर स्त्रियोचित सम्मान और गरिमा का ध्यान रखते हुए करते हैं तो तमाम शारीरिक कष्टों के बावजूद, सृजन पीड़ा सहने की असीम शक्तियों को धारण करने वाली स्त्रियों को माहवारी अभिशाप नहीं लगेगी और कई तरह के प्रगति के अवसरों में भेदभाव का शिकार शायद नहीं होना पड़ेगा। फिर प्रावधानों के बाद भी महिलाये पेड पीरियड लीव लेती है या नहीं ये उनका विशेषाधिकार है क्यूंकि गर्भधारण और संतति को जन्म देने की पीड़ा भी उनके हिस्से में है और संतान को जन्म देने का सुख और पालन पोषण के दौरान छूटे अवसरों के कारण जनित मानसिक अवसाद से भी उन्हें ही दो चार होना होता है । संवेदनशीलता के साथ सामाजिक और वैधानिक प्रावधान करने और उन्हें अपनाने में यदि हम थोड़ा भी सफल होने का ईमानदार प्रयास व्यक्तिगत, नीतिगत और संस्थागत स्तर पर कर सके तभी हम कह सकेंगे कि हम प्रतिबद्ध हैं माहवारी के दौरान प्रबंधन के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने के लिए , हम प्रतिबद्ध है माहवारी के दौरान भेदभाव मिटाने के लिए… जो वर्ष 2023 के लिए आज 28 मई को माहवारी स्वच्छता प्रबंधन दिवस की संकल्प थीम भी है।