BILASPUR NEWS. न्याय मिलने में देरी कैसे खुद में सजा बन जाती है, इसका बड़ा उदाहरण 36 साल पुराने फर्जी लोन मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का ताजा फैसला है। देना बैंक से जुड़े इस प्रकरण में हाईकोर्ट ने CBI की जांच में गंभीर खामियां पाते हुए CBI कोर्ट द्वारा दी गई सजा को निरस्त कर दिया और बैंक मैनेजर समेत तीनों आरोपियों को बरी कर दिया।

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया कि लंबे समय तक चले मुकदमे के बावजूद अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में नाकाम रहा। कोर्ट ने कहा कि संदेह के आधार पर किसी को दोषी ठहराना न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है, सजा के लिए ठोस और विश्वसनीय साक्ष्य अनिवार्य हैं।

यह मामला 1989 से 1992 के बीच का है, जब रायपुर स्थित देना बैंक की एक शाखा से कथित तौर पर दो फर्मों के नाम पर 1.50 लाख रुपए का लोन स्वीकृत किया गया था। CBI का आरोप था कि जिन फर्मों के नाम पर लोन दिया गया, वे अस्तित्व में नहीं थीं। हालांकि, हाईकोर्ट की सुनवाई में सामने आया कि लोन खातों में वर्षों तक नियमित लेन-देन होता रहा, स्टॉक का बीमा कराया गया और बैंक रिकॉर्ड में पते से जुड़े दस्तावेज भी मौजूद थे।

कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि CBI ने कई अहम बैंक रिकॉर्ड और गवाहों के बयानों को नजरअंदाज किया, जबकि बैंक ऑडिट में किसी तरह की गंभीर अनियमितता दर्ज नहीं थी। ऐसे में साजिश, जालसाजी या धोखाधड़ी का आरोप साक्ष्य के अभाव में टिक नहीं सका।

वर्ष 2007 में CBI कोर्ट ने तीनों को दोषी ठहराया था, जिसके खिलाफ आरोपियों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। करीब डेढ़ दशक तक चली अपील के बाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इतने लंबे समय बाद भी दोष साबित न होना, जांच की गंभीर विफलता को दर्शाता है।
इस फैसले को न्यायिक गलियारों में जांच एजेंसियों के लिए चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है कि आर्थिक अपराधों में जल्दबाजी या अधूरी जांच अंततः पूरे मामले को कमजोर कर देती है।



































