संजीव कुमार सोनी
LALITPUR NEWS. इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्णयुग माना जाता है। महाकवि कालिदास जैसे कवि, नाटककार व उत्तर प्रदेश में ललितपुर के देवगढ़ स्थित दशावतार मन्दिर हमारे समृद्ध कला वैभव की जीवन्त विरासत है। यह मन्दिर 515-525 ईसवी की एकमात्र आखिरी निशानी है। अत: वैश्विक दृष्टि से प्राथमिकता के आधार पर यह परम संरक्षणीय है।
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दशावतार मन्दिर संसार के इतिहासकार विष्णु मन्दिर के नाम से भी जानते हैं। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान षष्ठ अवतारों की चर्चा है। इसमें बराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और वासुदेव कृष्ण। इसके बाद चार और अवतार में हंस, कूर्म, मत्स्य और कल्कि जुडक़र संख्या दस हो गई है। आगे चलकर कुल चौबीस अवतार तक पहुँच गई है। लोकमान्य रामावतार व कृष्णावतार में ही अन्य सभी अवतार समाहित हैं। क्योंकि इन्हीं को गुणावतार, लीलावतार और पुरुषावतार के रूप में सर्वस्वीकार्यता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
पंचायत श्रेणी का मन्दिर
इसका गर्भग्रह बहुत छोटा 3 गुणा 3 मीटर का है पर एक अतिविशाल चबूतरे पर यह स्थित है। चारों ओर कोनों पर एक-एक छोटे मन्दिर भी थे, अत: इसे पाँच मन्दिर के समूह के कारण पंचायतन श्रेणी का मन्दिर कहा जाने लगा। काल के प्रवाह में मन्दिर का शिखर खण्डित अवस्था में है, परन्तु स्पष्ट आभास होता है कि 13 मीटर ऊँचा जरूर रहा होगा।
राम-कृष्ण लीला दृश्याँकन
मन्दिर के विशाल चबूतरे में फलकों की दो पंक्तियाँ हैं, इनमें रामायण और कृष्ण लीला के दृश्यों को अंकित किया गया है। यथा देवकी वासुदेव अथवा नंद यशोदा कृष्ण को खिलाते हुए और शंकटासुर का संहार करते हुए। रामलीला के अन्तर्गत अहिल्या उद्धार, शूर्पणखा, सीताहरण का दृश्यांकन किया गया है।
चौखट व गंगा-यमुना मूर्ति
परम्परानुसार गुप्तकालीन परम्परा में द्वारशाखा (चौखट) बहुत ही मनभावन लगती है। चौखट पर प्रेमीयुगल दाम्पत्य जीवन के उल्लास में लीन दिखाये गये हैं। इसके बगल में कुब्जक (बौने) यक्ष या गण विचित्र विचित्र भंगिमाओं के द्वारा एक विलक्षण हास्य विनोद उत्पन्न करते हैं। दोनों ओर गंगा-यमुना की मूर्ति हैं।
विश्वविख्यात तीन फलकों की विशेषतायें परम उल्लेखनीय है। इनमें दक्षिण ओर शेषशायी भगवान विष्णु हैं। पूर्व की ओर नारायण तपस्या का नयनाभिराम दृश्य है और उत्तर दिशा में गजेन्द्र मोक्ष का दृश्य है।
सृष्टि के उदय की प्रतीक शेष शय्या
भगवान विष्णु उस चरम अवस्था के प्रतीक हैं जब सृष्टि का विलय हो जाता है और परिणामत: सृष्टि उदय की ओर अग्रसर हो जाती है। विष्णु शेषनाग के सहस्त्र फणों की छाया में निश्चिन्त होकर लेटे हैं।
स्वयं नारायण बन जाते हैं संघर्षशील नर
पुराणों में जोर देकर कहा है कि ” शान्ताकारं भुजग शयनं ” यानि कालकूट सर्पों की शय्या पर लेटे होने के बाबजूद वे परमशान्त हैं। सचमुच वे ऐसे मानवातार हैं जैसे मनुष्य अपने जीवन में नाना प्रकार की विपत्तियों का मुकाबला धीरज के साथ मुस्कराते हुए सदैव करता रहता है। ऐसे संघर्षशील नर वस्तुत: स्वयं नारायण बन जाते हैं।
राजसी भाव में आलोकित है विष्णु की छवि
इस फलक में विष्णुजी की छवि पर राजसी भाव आलोकित है। परन्तु तनिक भी निष्क्रियता से आक्रांत नहीं है। लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं जो अपने आप में बड़ा ही अर्थपूर्ण प्रतीक है। समसामयिक परिस्थितियों में अत्यन्त सटीक है। क्योंकि श्रमोत्पादित लक्ष्मी (धन) के फल की हेराफेरी परोपजीवी दिन रात करते रहते हैं। उनका दिमाग इतना बौरा जाता है कि आदमी को आदमी नहीं समझते। इसलिए धन का स्थान भगवान के चरणों में ही दर्शाया गया है।
आकाश में इन्द्र विष्णु, शिव अपने-अपने वाहनों पर सवार इस लीला को देख रहे हैं। शिल्पकार ने बड़े कौशल से विष्णु की नाभि से निकले आदिकमल पर बैठे ब्रह्मा को देवपरिवार की इसी मण्डली में आसन्न कर दिया है। इस दृश्य में विष्णु के आयुध की आकृतिं उकेरी गई हैं। जो राक्षसों के संहार की सन्नद्धता की प्रतीक हैं।
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दूसरे फलक में नर-नारायण तपस्या का चित्रण किया गया है। क्योंकि विष्णु ने नारायण के साथ साथ नरावतार भी लिया। गीता में ही कृष्ण और अर्जुन के रूप में हैं। इनमें एक पूर्ण अवतार हैं जिनसे दूसरा ज्ञान प्राप्त करता है। इस फलक में तीर्थराज बदरिकाश्रम में स्थित छोटे बड़े दो पहाड़ कृष्णार्जुन के प्रतीक माने जाते हैं। कुछ पहाड़ के पठारों पर शेर और हिरण साथ-साथ चिन्तामुक्त होकर सोते हुए दिखाई देते हैं। जिसमें भारतीय संस्कृति के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व को रेखांकित किया गया है। बद्री को बेर कहा जाता है। अत: बद्री विशाल के इस तपोवन में बेरों के वृक्ष दर्शाये गये हैं। जो तपस्वनि माता शबरी की नवधा भक्ति की याद दिलाते हैं। चतुर्मुखी नारायण अपना ज्ञान जिज्ञासु शिष्य को हस्तान्तरित करते हुए ज्ञानग्रहीता शिष्य को तर्क-वितर्कशील सूक्ष्मतम् भावमुद्रा में चित्रांकित किया गया है।
तीसरे फलक का विषय गजेन्द्रमोक्ष है। इस दृश्य को शिल्पकारों ने तीन समानान्तर फलकों में संयोजित किया है। सबसे ऊपर दिव्यलोक है। जहाँ से गरुणासीन विष्णु नीचे की ओर बहुत आतुरता के साथ उतर रहे हैं। उसी आकाश पर दो देवदूत एक विशेष प्रकार का मुकुट लिए हुए हैं। जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो विष्णु हाथी की चीत्कार को सुनकर इतनी तेजी से दौड़े कि कदाचित मुकुट लगाना भूल गये हों। हाथी की याचनाभरी सजल दृष्टि और उठी हुई सूँड़ के मार्मिक दृश्य में एक आड़ी रेखा उत्पन्न हो जाती है। मानो विष्णु का पीडि़त से सहसा अभिन्न जुड़ाव हो गया है। गजराज का आतंकित भाव से विष्णु की शरण में जाकर ही कोई भी मनुष्य अपने प्राणों के संकट से त्राण पा सकता है। स्वयं भगवान विष्णु की त्वरा जिसका वर्णन भागवत महापुराण में किया गया है। जो आपदधर्म का बोध कराती है। गजेन्द्रमोक्ष का उक्त दृश्य भारतीय स्थापत्य एवं सर्वोत्कृष्ट मूर्तिकला का विश्व मानवता के लिए अनुपम उपहार है।
देवगढ़ वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन और बौद्ध धर्म का विलक्षण संगम है। प्रख्यात साहित्यकार व वास्तुविद आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर इसे शिवमन्दिर न मानकर विष्णु मन्दिर सिद्ध कर दिया। जबकि पूर्व परम्परा के अनुसार शिव मन्दिर के रूप में ही इसे जाना जाता था। इस मन्दिर के ललाटविम्ब जिसे बुन्देली बोली में लिलारी कहते हैं। उस पर शेषसायी विष्णु विराजमान हैं। इसलिए वैष्णव मन्दिर कहा जाना वस्तुत: सभी विद्वानों को समीचीन लगा। और विवाद स्वत: शान्त हो गया।
सिकन्दर के भारत आक्रमण के बाद कनिष्क के जमाने में गुप्तकाल में यूनानी वाह्य रूपांकन व पारम्परिक भारतीय आत्मा के व्यापक आत्मिक सौन्दर्य का समिश्रण मूर्तिकला के माध्यम से हुआ है। उसी को गांधारकला कहते हैं। दशावतार गंगा-जमुनी मन्दिर निर्माण एवं मूर्तिकला का अद्भुद उदाहरण है। कवि और लेखक रामधारीसिंह दिनकर अपने इतिहासग्रन्थ “संस्कृति के चार अध्याय” में उल्लेख किया है। वह कहते हैं कि जैसे वाल्मीकि के बगल में कालिदास बैठे हों। अर्थात विशाल से विशाल और सूक्ष्म से सूक्ष्म मनोभावों को छैनी से उकेर देना कितना विलक्षण है। निसंदेह देवगढ़ का दशावतार मन्दिर शिल्पीश्रमिकों की अनमोल कृति है। जिसमें सुखी जीवन के लिए संघर्षरत मानव की स्तुति की गई है।