KONDAGAON. देशभर में आदिवासियों को प्रकृति पूजक माना जाता है. छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में अधिकांश आदिवासी निवास करते हैं. यहां के आदिवासी जंगल, पहाड़, नदी और तालाब की पूजा आदिकाल से ही करते आ रहे हैं. इसी कड़ी में कोंडागांव के माकड़ी में बरकई गाँव बंधा मतऊर मेला के लिए प्रसिद्ध है. ख़ास तालाब में लगने वाला ये मेला 14 वर्षों से बंद था क्योकि 2008 में इस तालाब को लीज पर दे दिया गया था. इस वर्ष फिर से इस मेला की शुरुआत की गई.
इस मेला में बरकई समेत आस-पास के कई गाँव से आए लोग, एक साथ 2500 जाल लेकर तालाब में मछली पकड़ने उतरे थे. इसके बाद फिक्स डेढ़ घंटे बाद 4-10 किलो मछली पकड़कर तालाब से बाहर आ गए. इस प्रकार से लोगों ने सदियों पुरानी परंपरा को पुनः जीवित कर दिया.
मिली जानकारी के अनुसार, सबसे पहले गाँव के लोग मालगुजार को बाजे-गाजे के साथ तालाब के पास आए. इसके बाद पहले तो मालगुजार ने पूजा-अर्चना की, फिर मछली पकड़ने का आदेश गाँव वालों को दिया गया. इसके बाद 2500 जाल लेकर गाँव वाले मछली पकड़ने तालाब में उतरे. इस दौरान माता को प्रसन्न करने के लिए बाजा लगातार बजाया जा रहा था. तय किए गए समय सीमा यानी डेढ़ घंटे के बाद मालगुजार ने जैसे ही मछली पकड़ने वालों को रूकने का आदेश दिया. सभी लोग 4-10 किलो तक छोटी मछलियों को पकड़कर तालाब से बाहर आ गए.
इसलिए निभाते हैं परंपरा
गाँव के लोगों को खेती में किसी प्रकार की परेशानी का सामना न करना पड़े और अच्छी फसल की पैदावार होती रहे. इसलिए लोग माटी पूजा से लेकर तालाब में हमेशा जल भरा रहे, कभी भी गाँव में जल की कमी न हो, इसलिए गाँव वाले जलकमिनी की पूजा भी सदियों से करते आ रहे हैं. पूजा करने के बाद सामूहिक रूप से मछली पकड़ने की परंपरा है. इसमें महिला, पुरुष और बच्चे सभी सामान्य रूप से हिस्सा लेते हैं. इस आयोजन को गाँव में एकजुटता और एकता का प्रतिक माना जाता है. इसलिए प्रत्येक वर्ष लोग बस्तर जिले और पूरे संभाग के अलग-अलग गाँव में जलकामिनी की पूजा की जाती है. इसके बाद सामूहिक रूप से मछली पकड़ने का आयोजन किया जाता है.