ATUL MALVIYA. खेद की बात है कि गांधीजी और नेहरू ने सिंध और उसके हिंदुओं के प्रति कोई ख़ास प्रयास नहीं किये। वे जैसे निस्पृह भाव से हिंदुओं का सिंध से पूरी तरह उखाड़ दिए जाने की प्रक्रिया को सहमति देते लग रहे थे। हिंदुओं का सिंध से सामूहिक पलायन हुआ। अगस्त आते आते लूटपाट, मारकाट सिंध और कराची में चरमसीमा पर पहुँच गयी। ऐसे में जब किसी का साहस कराची में जाकर हिंदुओं को प्रेरित करने का नहीं था। तब एक महापुरुष अपनी जान की बाजी लगाकर वहाँ पहुँच गए।
5 अगस्त 1947 – दोपहर बारह बजे का समय था। अशांत कराची हवाईअड्डे के बाहर एक अलग तरह की ही हड़बड़ी नज़र आ रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) टाटा एयरसर्विस के विमान से बंबई से कराची आने वाले थे। इस बेहद अशांत और दंगाई माहौल में भी संघ के स्वयंसेवकों का मनोबल अपने चरम पर था। पुलिस पर भरोसा न करते हुए गुरूजी की सुरक्षा की पूरी जिम्मेवारी स्वयंसेवकों ने ही उठा रखी थी।
हवाईअड्डे पर इनका नेतृत्व कराची महानगर का 19 साल का एक युवा स्वयंसेवक कर रहा था, जिसका नाम था “लालकृष्ण आडवानी”। ठीक एक बजे गुरूजी का विमान कराची हवाईअड्डे पर उतरा, स्वयंसेवक पूरी तरह जागरूक और चौकन्ने। अनेक स्वयंसेवक तो बुर्का पहने छद्मवेश में हवाईअड्डे के चारों ओर फैले हुए थे। हवाईअड्डे पर ही भारत माता की जय के नारे लगने लगे।
सैकड़ों अनुशासित स्वयंसेवकों के कड़े पहरे के बीच गुरूजी का काफिला खुली जीप में कराची शहर की ओर चल पड़ा। जीप के आगे पीछे मोटरसाइकिलों पर भगवा झंडे लहराते स्वयंसेवकों की कतारें चल रही थीं। तीन बजे कराची की हर प्रमुख गली, हर सड़क पर स्वयंसेवकों ने पूर्ण गणवेश पहनकर पथ संचलन किया। लाठियों से लैस दस हज़ार स्वयंसेवकों का यह पथ संचलन “भारत माता की जय” के नारे लगाता हुआ पांच बजे कराची के मुख्य चौराहे पर पहुँच गया।
यहाँ गुरूजी ने एक विशाल आमसभा को संबोधित करते हुए सभी हिंदुओं को आश्वस्त एवं आह्वान किया कि वे निर्भय होकर हिंदुस्थान की तरफ प्रस्थान करें। संघ के स्वयंसेवकों को निर्देश दिया कि वे बस अड्डों, रेल स्टेशनों और हवाईअड्डे की न सिर्फ निगरानी करें, बल्कि विस्थापितों की सुरक्षा का जिम्मा भी उठायें। बंबई, दिल्ली, अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में संघ की निगरानी में शिविरों को लगा दिया गया। भोजन, आवास की व्यवस्था में लाखों स्वयंसेवकों ने तन, मन और धन से योगदान किया।
कराची में हिंदुओं को आश्वस्त करने के बाद माननीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) 6 अगस्त 1947 को सिंध के दूसरे सबसे बड़े शहर हैदराबाद पहुँचकर हिंदुओं की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित निकालकर भारत जाने के प्रबंध करने लग गए।
06 अगस्त 1947 को गुरुजी के नेतृत्व में हैदराबाद, सिंध में स्वयंसेवक बड़े पैमाने पर एकत्र हुए। लगभग दो हजार से अधिक स्वयंसेवक उपस्थित थे। उन्होंने कहा – “नियति ने हमारे संगठन पर एक बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी है। परिस्थितियों के कारण राजा दाहिर जैसे वीरों के इस सिंध प्रांत में हमें अस्थायी और तात्कालिक रूप से पीछे हटना पड़ रहा है। इस कारण, सभी हिंदू-सिख बंधुओं को उनके परिवारों सहित सुरक्षित रूप से भारत ले जाने के लिए हमें अपने प्राणों की बाजी लगानी है।
हमें पूरा विश्वास है कि गुंडागर्दी और हिंसा के सामने झुककर, जो विभाजन स्वीकार किया गया है, वह कृत्रिम है। आज नहीं तो कल, हम पुनः अखंड भारत बनाएंगे, लेकिन फिलहाल हमारे सामने हिंदुओं की सुरक्षा का काम अधिक महत्त्वपूर्ण और चुनौती भरा है।” ऐसे अस्थिर, विपरीत एवं हिंसक वातावरण में भी गुरुजी के मुख से निकले शब्द स्वयंसेवकों के लिए बहुमूल्य और उत्साह बढ़ानेवाले थे।
भारत माता की जय और वंदेमातरम् के उद्घोषों से कराची ही नहीं सिंध के सभी शहर गुंजायमान होने लगे| पूज्य गुरूजी के विभाजन या आजादी के मात्र दस दिन पूर्व हुए इस साहसिक दौरे ने न सिर्फ स्वयंसेवकों को दिशा दिखाई बल्कि हिंदुओं में जैसे नवीन प्राणों का संचार कर दिया| भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक कराची और हैदराबाद जैसे अन्य शहर कलकत्ता और नोआखाली बनने से बच गये| लाखों हिंदू सुरक्षित भारत आ सके, हज़ारों महिलाओं की इज्जत लुटने से बच गयी|