BHILAI. किसी मेडिकल कॉलेज से आप क्या उम्मीद करते हैं…यही कि आपके मरीज का बेहतर इलाज होगा। क्योंकि यहाँ इतने तजुर्बेकार डॉक्टर होते हैं, जो भविष्य के डॉक्टर तैयार करते हैं। इलाज/ऑपरेशन के बाद बेहतर देखभाल होगी… और न जाने क्या-क्या उम्मीदें लोग पाल लेते हैं। जब जनता इतनी उम्मीद पालती है तो मेडिकल कॉलेजों का भी दायित्व बनता है कि वे कम से कम जनता की उम्मीदों पर कुछ तो खरे उतरें।,
हम बात कर रहे हैं दुर्ग जिले के एकमात्र निजी मेडिकल कॉलेज की। यहाँ कल जो हुए वो तो महज एक नमूना भर है। इस बात का नमूना कि कैसे निजी मेडिकल कॉलेजों में मरीज महज एक प्रयोगशाला है। किस हद दर्जे की लापरवाही बरती जाती है। किस तरह सीनियर और जिम्मेदार डॉक्टर आपके बहुमूल्य जीवन को नौसिखियों के भरोसे छोड़ देते हैं। यह केस इस बात का भी नमूना है कि अपनी गलतियाँ छुपाने के लिए किस बेशर्मी से जीवन का सौदा किया जाता है।
अब बताते हैं कि इस निजी मेडिकल कॉलेज में हुआ क्या। पूरा घटनाक्रम अस्पताल के अति विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से हम आपको बता रहे हैं। घटनाक्रम ये है कि एक 42 वर्षीय व्यक्ति को हार्ट की दिक्कत के चलते मेडिकल कॉलेज लाया जाता है। इस मरीज को पहले से ही पेसमेकर लगा हुआ था और इसकी बैटरी बदली जानी थी। (हर पेसमेकर की बैटरी की एक अवधि होती है, इसके बाद उसे बदलने की जरूरत होती। हालांकि बैटरी की मियाद खत्म हो चुकी थी।)
यहाँ प्रारंभिक जांच के बाद एक अति उतावले कॉर्डियोलॉजिस्ट (ह्दय रोग विशेषज्ञ) उनके ऑपरेशन का फैसला लेते हैं। ऑपरेशन की इतनी जल्दीबाजी रहती है कि उन पैरामीटर्स का भी ध्यान नहीं रखा जाता है जो किसी भी ऑपरेशन के पहले अपनाए जाते हैं। (इन वरिष्ठ डॉक्टरों को शहर के लोग डॉक्टर डैथ के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि लोगों में चर्चा है कि इनके अधिकतर मरीज ऑपरेशन टेबिल से सीधे अंतिम सफर को जाते हैं।)
अब ऑपरेशन के पहले अपनाए जाने वाले पैरामीटर्स की बात करते हैं…सबसे पहले यह तय करना होता है कि प्रशिक्षित सहयोगी स्टाफ उपलब्ध है या नहीं, मरीज के परिजनों से ऑपरेशन की सहमति ली गई या नहीं। अब होता ये है कि एक अप्रशिक्षित सहयोगी स्टाफ को ऐसा जिम्मेदारी भरा काम सौंप दिया जाता है कि मरीज की जान चली जाती है।
ऑपरेशन के दौरान मरीज को एक मास्क (तकनीकि शब्द पता नहीं) लगाया जाता है, जो ठीक से काम नहीं कर रहा होता है। बताया जा रहा है कि इस मास्क में लीकेज था। इसलिए सही मात्रा में ऑक्सीजन मरीज को नहीं मिल पाती है। नतीजा ऑपरेशन टेबल पर ही मरीज दम तोड़ देता है।
इस घोर लापरवाही के बाद सारा ठीकरा सहयोगी स्टाफ पर फोड़ने की कोशिश होती है। लेकिन सच ये है कि जिम्मेदार डॉक्टर ने नौसिखिये को टीम में शामिल किया ही क्यों। मेडिकल कॉलेज होने के नाते प्रशिक्षु नर्स/डॉक्टर को किसी इतने महत्वपूर्ण ऑपरेशान में शामिल किया जा सकता है, जिसमें मरीज की जान जोखिम में हो। ऐसे प्रशिक्षु नर्स या डॉक्टर को तो दर्शक की भूमिका में ही रखना बेहतर होता है।
पूरा एपिसोड चल रहा है और डीन नामक पद को शोभायमान करनी वाली शख्सियत माहौल को देखकर नैपथ्य में चली गई है। मानो उसे कोई सरोकार ही नहीं। उसकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं। पूरे घटनाक्रम के दौरान डीन दृष्टा की भूमिका में रहते हैं, जबकि उन्हें एक्शन मोड में होना चाहिए था।
प्रबंधन की बेशर्मी का दूसरा पार्ट मौत के बाद शुरू होता है। जब बवाल मचता है, पुलिस आ जाती है। इसके बाद मौत की सौदेबाजी शुरू होती है। आखिरकार प्रबंधन सफल होता है और कुछ लाख रुपये में सौदा पक्का हो जाता है। ये पक्का सौदा उन लोगों के भरोसे पर बहुत बड़ा धक्का है जो इस उम्मीद से किसी मेडिकल कॉलेज में जाते हैं कि उन्हें एक्सपर्ट डॉक्टरों से सर्वश्रेष्ठ इलाज मिलेगा।