ATUL MALVIYA. आज जब “रैट टनल” खोदने वालों द्वारा जीवटता से अत्याधुनिक मशीनों को धता बताते हुए उत्तराखंड की धंस चुकी सिल्कयारा सुरंग में से 41 लोगों की जान बचाने का लोमहर्षक वाकया सबकी जुबान पर है। तभी इस तथ्य का बड़े ही हलके तरीके से उल्लेख हुआ है कि बुंदेलखंड के दो महत्वपूर्ण गढ़ “झांसी और कालिंजर” के किलों से भी ऐसी सुरंगें निकलती थीं। ऐसी ही एक सुरंग से वीरता और बुंदेलखंड ही नहीं पूरी दुनिया की महिलाओं के साहस और शक्ति की प्रतीक महारानी लक्ष्मीबाई के प्रयोग कर सुरक्षित निकलने और ब्रिटिश सेना के विरुद्ध सैन्य संगठन खड़ा करने में समर्थ होने का इतिहासकार उल्लेख करते हैं।* ललितपुर और आसपास के जागीरदारों के वंशज इस बात से भलीभांति वाकिफ होंगे कि हमारे यहाँ ऐसी सुरंगों का होना आम बात हुआ करती थी। हमारा मुहल्ला “चौबयाना” ऐसे चौबे ज़मींदारों की बसाहट है जिनकी ललितपुर के चारों तरफ फैले गाँवों में जागीरें थीं। ऐसी ही एक जागीर प्रयागराज से आकर ललितपुर बसने के फलस्वरूप हमारे खानदान को भी पुरोहिताई में मिली हुई थी।
ललितपुर रेलवे स्टेशन से सटे और वर्तमान में ललितपुर नगर का महत्वपूर्ण हिस्सा देवगढ़ रोड पर स्थित “जुगपुरा” गाँव हमारे परिवार की “16 आने अर्थात 100%” की जमींदारी हुआ करता था। भगवान शंकर और देवी जी के दो अलग अलग मंदिर जो जुगपुरा और आसपास की जनता के श्रद्धा के केंद्र हैं, हमारे ही खानदान द्वारा प्रतिष्ठित किये गए थे। पिताजी के समय तक भी आजादी के लगभग 15 वर्षों बाद तक जमींदारी तब तक कायम रही जब तक सरकार ने “जमींदारी उन्मूलन क़ानून” पारित नहीं कर दिया।
पितामह की वर्ष 1949 में असामयिक मृत्यु के समय अपने मातापिता की इकलौती संतान हमारे पिताजी की आयु मात्र 21 वर्ष की थी। पिताजी को पूरा भरोसा था और सुनी हुई जानकारी थी कि उनके पिता, पितामह या अन्य पूर्वजों ने बड़े बड़े हंडों (पात्रों) में भरकर अकूत सोना घर में ही कहीं गाड़ रखा था जो वे अचानक मृत्यु के कारण बता नहीं सके। सिर्फ हमारे ही नहीं, चौबयाना के अधिकांश जमीदार परिवारों में यह प्रबल धारणा थी कि उनके घरों में कहीं न कहीं गड़ा हुआ सोना-चांदी विद्यमान है। लोगों में ये आम चर्चा का विषय हुआ करता था और अनेक लोग अपने विशाल परिसर में फैले घरों की जगह जगह खुदाई करते हुए ऐसे खजानों की निरंतर तलाश करते रहते| अनेक लोग ऐसे खज़ानों को ध्यान कर बता देने के गुणी होने का दावा भी करते। यदाकदा किसी के यहाँ गड़े सोने या चांदी मिलने की अफवाहें भी सुनाई दे जातीं।हमारे स्वर्गीय पिताजी पंडित रमाकांत मालवीय जी ने भी घर का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जिसे खुदवाकर न देखा हो लेकिन प्रत्येक स्थान पर निराशा ही हाथ लगती। ऐसे में मुझे आज से लगभग 58 साल पहले का एक वाकया अच्छी तरह याद है। मैं लगभग पाँच छः साल का रहा होउंगा, हमारे कच्चे घर को सीमेंट की दीवारों और फर्श में कन्वर्ट किया जा रहा था।
बड़ी सी बैठक, जिसे आजकल ड्राइंगरूम और हमारी बुंदेली में “बैटका” कहते हैं, के कच्चे फर्श को मजदूरों द्वारा उखाड़ा जा रहा था कि अचानक पूरी की पूरी ज़मीन भरभराकर धंसने लगी। मजदूरों में अचानक भय व्याप्त हो गया लेकिन कुछ समय में ही ज़मीन का धंसना रुक गया। पिताजी ने काम रुकवाकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गए, जहाँ ज़मीन धंसी थी वहाँ से एक लंबी और अनंत दूरी तक दिखाई पड़ने वाली सुरंग के दर्शन हुए। टॉर्च लेकर पिताजी और अन्य लोगों ने सँभलते हुए प्रवेश किया। जैसे ही अंदर देखा, थोड़ी थोड़ी दूरी पर पत्थर की तरह मजबूत पक्की मिट्टी के लगभग चार फुट ऊंचे तीन मटके नज़र आये जो गोल भारी टाइट ढक्कन नुमा पत्थरों से ढंके हुए थे।
पिताजी को पूरा यकीन हो गया कि इन्हीं तीन मटकों (जिन्हें हम माठ कहते थे और अभी लगभग 20-25 साल पहले तक हमारे यहाँ अनाज़ इत्यादि के भंडारण के लिए प्रयोग किया जाता था), में वह खज़ाना है जिसके बारे में उन्हें पूर्ण विश्वास था। बाकी लोगों को हटाकर कुछ विश्वसनीय लोगों के साथ विस्मयपूर्वक उन माठों के ढक्कनों को एक एक कर हटाया गया। यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि उन माठों में सोना या चांदी नहीं बल्कि पानी भरा हुआ था। हैरत की बात ये भी थी कि अनेक दशकों पूर्व भरा वह पानी बिल्कुल ताज़े पानी जैसा निर्मल था। कहते हैं कि लंबी सुरंगों में ऐसे जल भंडारण किये माठों को इसलिए रखा जाता कि शत्रु से छुपने अथवा सुरंगों से भागने के समय पानी की आवश्यकता की पूर्ति होती रहे।
बाद में ये भी जानकारी मिली कि हमारे घर से लगभग 200 कदम दूर स्थित “रावर स्कूल” (रावर का बुंदेली में मतलब होता है “रनिवास” या “रानी का महल”) में जो बावड़ी है वहाँ एकदम तलहटी में एक दरवाज़ा है। इसे पत्थरों से पूरी तरह ढँक दिया गया था। वह और कुछ नहीं बल्कि एक लंबी सुरंग का दरवाजा है। बावड़ी में लबालब पानी होने पर यह दरवाज़ा पानी में डूबा रहता और सुरंग तिरछी ऊपर की तरफ उठती हुई जाती जिससे पानी आगे सुरंग में न भरे। बचपन में हम लोग खेलते कूदते या गेंद नीचे चली जाने पर उस बावड़ी की सीढ़ियों से नीचे जाते लेकिन भय से कांपते भी रहते। कारण, ऐसा कहते थे कि उस बावड़ी में चुड़ैलें रहतीं हैं। शायद ऐसे गुप्त स्थानों से लोगों को दूर रखने के लिए ही इस तरह की अफवाहें फैला दी जाती होंगीं।
पुष्टि करने का कोई साधन नहीं है क्योंकि रावर से शुरू होकर हमारे घर के नीचे से गुजरने वाली सुरंग हर जगह निर्माण हो जाने से पूरी तरह ब्लॉक हो चुकी थी। कोई कहता था सीधी टीकमगढ़ जाती है, कोई कहता था चंदेरी। कोई कोई तो ये भी कहते थे कि रानी लक्ष्मीबाई का जब अंग्रेज़ सेना पीछा कर रही थी तो वे पानी से भरी इसी बावड़ी में कूद गईं, अंग्रेज़ हैरत में कि कहाँ गायब हो गयीं और वे डूबे हुए अदृश्य दरवाजे के माध्यम से सुरंग से निकलने में कामयाब हो गईं। भगवान ही जाने सच क्या था, हाँ, सुरंग के अस्तित्व के हम स्वयं गवाह हैं। उम्मीद है कि ललितपुर शहर, खासकर चौबयाना मोहल्ले में अभी भी ऐसे सज्जन होंगे जो इस सुरंग के बारे में जानकारी रखते होंगे। यदि ऐसा है तो कृपया इस सुरंग या ललितपुर के आसपास अन्य सुरंगों के अस्तित्व पर प्रकाश डालने, जानकारी देने की कृपा करें। बुंदेलखंड की सुरंग निर्माण की इस प्राचीन विधा पर गर्व करने का हम बुन्देलखंडियों को पूरा पूरा अधिकार है, जिसने 41 लोगों की जानें बचाने का वह करिश्माई चमत्कार कर दिखाया जहाँ बाकी सब असफल हो गए।