LONDON. एक नए शोध से पता चला है कि नस्लवाद ब्रिटिश समाज का एक स्थायी तत्व है और देश में जातीय व धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के एक-तिहाई से अधिक लोगों ने किसी न किसी रूप में नस्लवाद का सामना किया है. इस शोध को अंजाम देने वाले दल में भारतीय मूल की एक शिक्षिका भी शामिल है. मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की वरिष्ठ व्याख्याता और शोध के सह-लेखकों में से एक डॉ. धर्मी कपाड़िया ने नस्ली भेदभाव को बढ़ावा देने वाली नीतियों और प्रक्रियाओं पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया.
कपाड़िया ने नस्लवाद और जातीय असमानताओं के सिलसिले में ‘सेंटर ऑन डायनेमिक्स ऑफ एथ्निसिटी’ (सीओडीई) द्वारा किए गए ‘एविडेंस फॉर इक्वैलिटी नेशनल सर्वे’ (ईवीईएनएस) नामक सर्वेक्षण पर किंग्स कॉलेज लंदन और सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय के लेखकों के साथ काम किया. कपाड़िया ने कहा, ‘हमारा डेटा इस बात का पुख्ता सबूत है कि नस्लवाद आज ब्रिटिश समाज का एक स्थायी तत्व है.’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि नस्लवाद से निपटने के लिए केवल कार्यस्थलों और मेट्रोपॉलिटन पुलिस जैसे संस्थानों से खराब लोगों को हटाने से काम नहीं चलेगा. जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बेहतर माहौल और अवसर सुनिश्चित करने के लिए हमें उन नीतियों व प्रक्रियाओं को गंभीरतापूर्वक बदलने की जरूरत है, जो नस्ली भेदभाव को जारी रखने में मदद करती हैं.’
सर्वेक्षण में भाग लेने वालों ने नस्लवाद के अलग-अलग रूपों का जिक्र किया, जिनमें शारीरिक, मौखिक या संपत्ति को नुकसान जैसे रूप शामिल हैं. इसके अलावा, उन्होंने शिक्षा, काम और घर ढूंढने के मामले में भी नस्लवाद का सामना करने की बात कही. कुल मिलाकर हर छह प्रतिभागियों में से लगभग एक ने नस्लीय रूप से प्रेरित शारीरिक हमले का सामना किया. एक-तिहाई से अधिक लोगों ने बताया कि जाति, नस्ल, रंग और धर्म के कारण वे शारीरिक हमले के शिकार हो चुके हैं.