JAGDALPUR NEWS. 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की महत्वपूर्ण रस्म मावली परघाव दंतेश्वरी मंदिर प्रांगण में मनाई गई। इस दौरान दो देवियों के मिलन का यह अद्वितीय आयोजन हर साल की तरह इस वर्ष भी धूमधाम से हुआ। हालांकि बारिश ने इस वर्ष कुछ खलल डाला, लेकिन उसके बावजूद यह रस्म भव्यता के साथ निभाई गई। शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से माता मावली की डोली और छत्र को परंपरा अनुसार जगदलपुर लाया गया, जहां बस्तर राजपरिवार के सदस्य और हजारों श्रद्धालुओं ने भव्य आतिशबाजी और पुष्पवर्षा से देवी का स्वागत किया।

मावली परघाव की रस्म देखने और माता का दर्शन करने सड़कों पर हजारों भक्तों की भीड़ उमड़ी। सड़क किनारे स्थित घरों की छत के ऊपर भी भारी संख्या में लोग मौजूद रहे। माता की डोली और छत्र पर फूल बरसाए गए। वहीं, आज 8 चक्कों वाले विजय रथ की परिक्रमा होगी। नवरात्र की नवमी को होने वाली यह रस्म लगभग 600 वर्षों से निरंतर निभाई जा रही है। मान्यता है कि यह परंपरा बस्तर रियासत के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह के समय से शुरू हुई थी।

मावली देवी मूलतः कर्नाटक के मलवल्य गांव की देवी हैं, जिन्हें छिंदक नागवंशीय शासकों ने बस्तर लाकर प्रतिष्ठित किया। बाद में चालुक्य राजा अन्नम देव ने उन्हें कुलदेवी के रूप में मान्यता दी और तभी से मावली परघाव की रस्म प्रारंभ हुई। इस दिन राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से मंदिर प्रांगण तक जाकर देवी की डोली का स्वागत करते हैं और दशहरे के समापन पर ससम्मान विदाई देते हैं।

बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने बताया कि बस्तर में अब तक जितने भी राजा थे सभी इस रस्म की अदायगी के समय कांटाबंद (राजा के सिर में फूलों का ताज) पहनकर ही माता की आराधना करने आते थे। मैं भी इसी परंपरा को निभा रहा हूं। यह कांटाबंद का फूल बस्तर के जंगल में मिलता है। इसकी अपनी एक अलग विशेषता है।

उन्होंने कहा कि इसे पहनकर मां दंतेश्वरी और मां मावली के छत्र और डोली को प्रणाम कर डोली को कंधे पर उठाकर राज महल लाया हूं। माता बस्तर दशहरे में शामिल होंगी। जब तक माता की विदाई नहीं होती, तब तक माता राजमहल प्रांगण में ही रहेंगी। उन्होंने कहा कि माता हमारी इष्ट देवी हैं। बस्तर दशहरे में शामिल होने सदियों से आ रहीं हैं।





































