JAGDALPUR NEWS. ऐतिहासिक बस्तर दशहरा रस्मों और परंपरों के लिए देश ही नहीं, पूरी दुनिया में जाना जाता है। इसी क्रम में अनोखी और विश्व प्रसिद्ध परंपरा भीतर रैनी के लिए जाना जाता है। गुरुवार और शुक्रवार की आधी रात को इस रस्म का आयोजन धूमधाम से किया गया। कहा जाता है कि दंडकारण्य क्षेत्र यानी बस्तर कभी रावण की बहन शूर्पणखा का नगर माना जाता था। इसी कारण यहां रावण दहन नहीं होता, बल्कि शांति और सद्भावना के प्रतीक के रूप में देवी मां दंतेश्वरी की पूजा की जाती है।
इस दिन आदिवासी समुदाय हाथ से बने आठ चक्कों वाले विशालकाय विजय रथ को खींचते हैं। रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र और खड़ा तलवार रखकर विजयदशमी की रात रथ चोरी करने की परंपरा निभाई जाती है। वहीं आज बस्तर राज परिवार के सदस्य रथ लेने जाएंगे। ग्रामीणों के साथ नवाखाई खाएंगे। जिसके बाद ग्रामीण उन्हें रथ लौटाएंगे। फिर रथ को खींचकर राजमहल लाया जाएगा। इस रस्म को बाहर रैनी कहा जाता है। वहीं, इस दौरान एक घटना भी घटी, एक कार विजय रथ के चक्के में फस गई थी जिसे बाद में निकाला गया।
करीब 600 साल पुरानी इस परंपरा के तहत माड़िया जाति के लोग इस रथ को मंदिर से लगभग 4 किलोमीटर दूर कुम्हड़ाकोट के जंगल तक ले जाते हैं। ऐतिहासिक मान्यता है कि राजशाही काल में राजा से असंतुष्ट ग्रामीणों ने रथ चुरा लिया था। बाद में राजा खुद कुम्हड़ाकोट पहुंचे और नवा खानी यानी नए चावल से बनी खीर ग्रामीणों के साथ खाकर रथ को शाही अंदाज में वापस लाए। यही रस्म आगे चलकर बाहर रैनी कहलाने लगी।
आज भी हजारों आदिवासी इस परंपरा को निभाते हैं। रथ को खींचते हुए करीब 3 किलोमीटर लंबी परिक्रमा निकाली जाती है और दंतेश्वरी मंदिर के सामने यह ऐतिहासिक रस्म संपन्न होती है। इस अवसर पर हर साल जनसैलाब उमड़ पड़ता है। इस बार भी गुरुवार रात को भीतर रैनी की रस्म धूमधाम से निभाई गई।
दरअसल, नवरात्रि की तृतीय से सप्तमी तक यानी कुल 5 दिनों तक चार चक्का वाले फूल रथ की परिक्रमा करवाई जाती है। वहीं विजयादशमी को 8 चक्कों वाले विजय रथ की परिक्रमा करवाने की परंपरा है। इस विशाल रथ से ही भीतर और बाहर रैनी की परंपरा अदा की जाती है।