अतुल मालवीय
LALITPUR. सब्जी तरकारी और फलों की तरह हमारे देश में चुनाव का मौसम भी गाहे बगाहे आता रहता है| जिस तरह मंडियों में फलों और तरकारियों की नीलामी और बिक्री होती है ठीक उसी तरह चुनावी मौसम में भी नेताओं की उनकी जातीय, धार्मिक हैसियत और समर्थकों की संख्या के हिसाब से बोलियाँ लगाई जाती हैं| मूल्य निर्धारण में नेताजी के दांवपेंच का भी बड़ा महत्त्व होता है|
नेताओं की इस प्रजाति के कुछेक भाग्यशाली विक्रययोग्य नेता जीत कर जब विधानसभा या लोकसभा में पहुँच जाते हैं और “हंग असेंबली” जैसी स्थिति हो जाये या बहुमत के लिए पार्टियों को इनकी दरकार हो तब तो इनके रेट एकदम आसमान छूने लगते हैं, सात पुश्तों तक का जुगाड़ हो जाता है| खैर… अपने ऐसे वाकये, बल्कि वाकयों पर आते हैं जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ|
ये किस्सा है मध्यप्रदेश के “चांचौड़ा-बीनागंज” विधानसभा क्षेत्र का जहाँ मैं 1986 से 1991 तक पाँच वर्ष एक राष्ट्रीयकृत बैंक के शाखा प्रबंधक के रूप में पदस्थ था| दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बनकर चांचौड़ा से ही विधायक बने।
नेताओं की अनेक प्रजातियों में से एक प्रमुख चुनावी प्रजाति के थे “सुनील डॉक्टर” (परिवर्तित नाम)| वे डॉक्टरों की उस श्रेणी के थे जिसे आम बोलचाल में हम “झोला डॉक्टर” भी कहते हैं| हाँ, उन्होंने रेडियोलोजी में एक अल्पकालीन डिप्लोमा किया हुआ था| जहाँ अन्य डॉक्टरों के नाम के आगे डॉक्टर लगता, वहीं ये सम्मानसूचक उपाधि इनके नाम के बाद लगा करती|
मैंने उन्हें उस क्षेत्र की पहली “एक्सरे मशीन” फाइनेंस की थी अतः मेरे साथ उनका काफी मेलजोल हुआ करता| वे स्वभाव से भयंकर वाले विनम्र (खीसें निपोरते हुए कमर को आधा झुकाकर सदा हाथ जोड़ने वाली केटेगरी के) थे| उनकी चिकित्सा पेशे के लिए कम रुझान और पब्लिक में घूमते फिरते रहने की प्रवृत्ति से उनके आय के संसाधनों के बारे में अनुमान लगाना असंभव था लेकिन शीघ्र मुझे इसके महत्वपूर्ण स्त्रोत की जानकारी लग गयी|
नगर पंचायत, विधानसभा हो या लोकसभा, वे हर चुनाव में आम जनता के प्रतिनिधि बनने को अपना अधिकार और कर्तव्य दोनों मानते थे| वे कभी निर्दलीय नहीं लड़ते लेकिन राष्ट्रीय दलों द्वारा अपनी प्रतिभा को न पहिचाने जाने के कारण वे उन क्षेत्रीय पार्टियों की तरफ से टिकट कबाड़ने में सफल हो जाते जिनका क्षेत्र में तो क्या, मध्यप्रदेश में ही कोई नाम लेवा पानी देवा नहीं होता|
जैसे अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल या ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस| टिकट मिलने के उपरांत मुझसे मिलने अवश्य आते और आते ही कहते – “मालवीय साहब, इस बार अजीत सिंह जी ने मुझे दायित्व देते हुए कहा है कि आपके विधानसभा क्षेत्र में ही नहीं, पूरे मध्यप्रदेश में हम एक आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहते हैं, जिसकी शुरुआत आपसे (सुनील डॉक्टर) होगी| देखना, अगले दस सालों में हमारी पार्टी मध्यप्रदेश का एक प्रमुख दल बन जायेगी|”
मुझे पक्का पता होता कि सुनील डॉक्टर को शायद पचास मत भी मुश्किल से मिलेंगे लेकिन उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता था| वे कहते – “इस बार मुझे दुनिया की कोई ताकत हरा नहीं पायेगी और मेरी ऐतिहासिक जीत सुनिश्चित है, आप किसी से भी बात करके देखें, चारों ओर मेरी ही लहर दौड़ रही है|
वे सभी के पास जा जाकर इसी तरह की बातें करते| चुनाव में वैसे तो अधिक व्यय करना वे अनैतिक मानते लेकिन प्रारंभ में ही कुछ सौ दो सौ ठलुआ लोगों को पूड़ी सब्जी अचार और मात्र एक घंटे साथ देने पर पाँच रुपये देने से पीछे नहीं हटते| वे पैदल ही चांचौड़ा-बीनागंज की गलियों से ढोल नगाड़े के साथ जब निकलते तब तीस चालीस लोग उनके पीछे पीछे और बाकी के दस दस के समूहों में हर मोड़ पर उन्हें पुष्पमाला पहनाते| इस जनसंपर्क को वे ऐसी ऐतिहासिक घटना बताते जो न भूतो, न भविष्यति की श्रेणी में होता| पूछते – “आपने देखा, मेरे हज़ारों समर्थकों का उत्साह?”
मुख्य संघर्ष में खड़े दो तीन उम्मीदवारों को अपनी पार्टियों से अधिक “हवा बनाने” पर भरोसा रहता| आये दिन न्यूज़ आती कि फलाना उम्मीदवार अपने समर्थकों के साथ फलाने के पक्ष में बैठ गया| जिसके पक्ष में जितने बैठ जायें उसकी उतनी ही “हवा”| ऐसे में स्वाभाविक था कुछ लोग सुनील डॉक्टर से भी संपर्क करते|
डॉक्टर साहब छूटते ही मना कर देते कि मैं मर जाऊँगा लेकिन अपने सिद्धांतों से, अपनी पार्टी से दगा नहीं कर सकता| अजीत सिंह या ममताजी ने मेरे ऊपर जो निजी रूप से भरोसा जताया है उसे पचास-साठ हज़ार रुपयों के लालच में खराब नहीं करूँगा (जबकि सामने वाले के दिमाग में दस पंद्रह हज़ार की राशि ही चल रही होती)|
जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती, वे और सात आठ हज़ार रुपये का इन्वेस्टमेंट करके तीन चार रैलियाँ निकाल चुके होते, लोगों के घरों की दीवारों को लाल गेरुआ मिट्टी से अपने पक्ष में रंगवा कर गंदी करवा चुके होते, लाउडस्पीकर से जगह जगह अपना संदेश प्रसारित कर रहे होते|
चुनाव की तारीख के चार पाँच दिन पहले तक वे अकेले ही सबके पास जा जाकर आश्वस्त कर रहे होते कि उनके नाम की लहर अब एक आंधी का रूप धारण कर चुकी है| वे लोगों को यह भी बताते कि उनकी जीत की प्रचंड संभावना के चलते उनकी तत्कालीन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष या अध्यक्षा स्वयं प्रचार करने आने वाले हैं| हालाँकि ऐसा सुखद संयोग का कभी कोई साक्षी नहीं बन पाया|
एक दिन अचानक खबर मिलती कि जुलूस निकल रहा है जिसमें सुनील डॉक्टर किसी मजबूत पार्टी के उम्मीदवार की चुनाव सभा की ओर ढोल नगाड़े के साथ बढ़ रहे हैं| जब वे हमारे बैंक के सामने से निकलते तो हम लोग भी दरवाजे पर खड़े हो जाते| उनके साथ सौ डेढ़ सौ लोगों की भीड़ होती, वे पुष्पहारों से लदे हुए, चेहरे पर चिर मुस्कान चिपकाए हुए, सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए एक क्षण के लिए रुकते और कहते – “मालवीय साहब, मैं मीटिंग के बाद मिलता हूँ|”
*मीटिंग में वे मंच पर चढ़कर माइक संभाल लेते और कुछ इस तरह कहते – हालाँकि मेरी जीत शत प्रतिशत निश्चित थी लेकिन एक तो मेरी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत सिंह ने मुझे बड़ा निराश किया जो चुनाव प्रचार में वायदा करके भी नहीं आये और इससे भी बड़ा कारण है विचारधारा| मैंने गहन चिंतन कर पाया कि इस देश और प्रदेश का भविष्य फलानी राष्ट्रीय पार्टी और इसके “नेता” के हाथों में ही सुरक्षित है| वैसे भी इसके प्रत्याशी मेरे भाई की तरह हैं, चुनाव में भाई भाई का परस्पर लड़ना उचित नहीं|
साथ ही, इन्होंने आश्वस्त किया है कि क्षेत्र में विकास की गंगा बहाने, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और बेरोजगार युवाओं की समस्याओं को दूर करने का जो बीड़ा मैंने उठाया था, ये उसकी कमान थामने का संकल्प ले रहे हैं| मैं स्वयं इस “पार्टी” में अपने हज़ारों समर्थकों के साथ शामिल हो रहा हूँ और सभी से अपील करता हूँ कि “इन्हें” भारी मतों से विजयी बनायें| इनकी जीत असल में मेरी ही जीत होगी|
स्वभाव में सुनील डॉक्टर एक सन्यासी की तरह थे| मतदान के तुरंत बाद वे पुनः पार्टी पॉलिटिक्स के प्रति निस्पृह हो जाते, भूल जाते कि कौन सी पार्टी में वे और उनके तथाकथित हज़ारों समर्थक शामिल हुए थे| कुछ समय पश्चात मेरे बैंक में उनकी पत्नी, माताजी और पुत्र के नाम से साठ सत्तर हज़ार की फिक्स्ड डिपॉजिट्स बनवाने वे जब आते और मैं पूछता कि इतनी बड़ी धनराशि कहाँ से आई (ये उस जमाने की बात है जब “लखपति” होना बड़े सम्मान की बात होती थी) तब वे तिरछी नज़र से देखते हुए “कटु मुस्कान” का वार छोड़ते हुए कहते – “अरे मालवीय साहब, हमारे पास इतने सारे खेत हैं, इस बार फसल बहुत अच्छी हुई थी, पैसा घर में ही पड़ा हुआ था।
सोचा रिस्की है, बैंक में जमा करवा दूँ|” मुझे समझने में देर नहीं लगती कि डॉक्टर साहब ने कौन सी फसल काट ली है| सोचता – “एक सयाना नेता ही पंद्रह बीस दिनों में अपनी रकम के निवेश को दस गुना से अधिक कर सकता है|”
डॉक्टर साहब अगले चुनाव की प्रतीक्षा करने लगते|