रायपुर। संगीत में गहरी रुचि रखने वाले, वायलिन जैसे कठिन वाद्य यंत्र में निपुण और कामकाज में सख्त कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलसचिव आनंद बहादुर का एक और चेहरा भी है। आनंद जी मंजे हुए कहानीकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार, कवि, अनुवादक और तमाम पत्रिकाओं के संपादक भी हैं। हाल ही में प्रकाशित उनका कविता संग्रह ‘समतल’ पाठकों को आसपास की घटनाओं को संवेदनाओं के सपाट नज़रिये से दिखा रहा है।
आनंद जी की ‘समतल और अन्य कवितायें शब्दों के काव्यात्मक रूप में प्रकृति की कहानी है। कविताओं में आदमी के अंदर आदमी की तलाश की जा रही है तो संबंधों का पोस्टमार्टम भी है। प्रकृति का दर्शन है तो एहसासों की गर्मी भी है। कविताओं में एक तरह की आधुनिकता है। कविताएँ उस विषय पर हमें एक नया दृष्टिकोण देती हैं, जिस पर कविता लिखी गई है। समतल इस संग्रह की एक उल्लेखनीय कविता है जिसमें जीवन के सत्य को समतल, पहाड़ और सरिता के एक बहुत सूक्ष्म अन्तरसंबंध के रूपक के जरिए पकड़ा गया है। संग्रह की ज्यादातर कविताएं इसी तरह होने-न होने के द्वैत को एक विशिष्ट कोण से देखती हैं।
इसी तरह संग्रह की सभी कविताएं बेहद गंभीर और गहन जीवन अनुभवों से रची गई हैं। इन्हें बहुत गम्भीरता से पढ़े जाने और इनके बारे में विस्तार से बात करने की जरूरत है, क्योंकि ये हिंदी कविता को उसकी बोझिल फार्मूलेबाजी से आजाद कर उसके कुछ बेहद नये और अनूठे गवाक्षों को खोलती हैं।
दिल्ली के किताबवाले प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कविता संग्रह की समीक्षा हिंदी के गुणी साहित्यकार सियाराम शर्मा ने लिखी है। समीक्षा पढ़कर लगता है कि सियाराम जी ने कविताओं के एक एक शब्द का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। उन्होंने अपनी समीक्षा में लिखा है कि इस संग्रह की कविताएं हमारे जड़, अमावीकृत समय में, जीवन में स्पंदन जगाती, सौंदर्यानुभूति को विस्तार देती कविताएं हैं।