नई दिल्ली। देश के जिन राज्यों में हिंदूओं की आबादी कम हो गई है ऐसे में वहां उन्हें अल्पसंख्यक घोषित किए जाने की मांग होने लगी है। केंद्र सरकार ने एक याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में कहा कि राज्य चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। पर इसमें कई सवाल सामने आने लगे हैं।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के सेक्शन 2(सी) में पांच संप्रदायों को अल्पसंख्यक बताया गया है। इन संप्रदायों में मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और इसाई शामिल थे। 2014 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया।
मामले में याचिका दायर किया गया है। कोर्ट को जानकारी देते हुए कहा गया है कि जिन राज्यों में हिंदू आबादी कम है वहां उन्हें अल्पसंख्यक घोषित किया जाए। केंद्र सरकार ने याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में कहा कि राज्य चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। वहीं, दूसरी ओर असम के मुख्यमंत्री जिलों के आधार पर अल्पसंख्यक दर्जा देने की बात कर रहे हैं।
आखिर अल्पसंख्यक का दर्जा दिया कैसे जाता है? संविधान में किन लोगों को अल्पसंख्यक माना गया है? क्या राज्य और जिले के आधार पर अल्पसंख्यक घोषित हो सकते हैं? अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से क्या फायदा होता है? जिस याचिका की वजह से ये सारी बहस हो रही है उसमें क्या कहा गया है? कौन से राज्यों में हिंदू आबादी अल्पसंख्यक है? इन सभी सवालों का जवाब समझने के लिए इस मामले में याचिका लगाने वाले वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने सवालों का जवाब दिए। आइए जानते हैं…
याचिका में क्या मांग की गई है?
याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि उनकी याचिका की मूल मांग ये है कि 1992 का राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम और 2004 का अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम समाप्त किया जाए। अगर ये नहीं हो सकता तो जिन राज्यों में हिन्दू आबादी अल्पसंख्यक है, वहां उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। याचिका अल्पसंख्यकों को परिभाषित करने के लिए गाइडलाइन बनाने की भी मांग करती है।
उपाध्याय कहते हैं कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक की व्याख्या संविधान में कहीं नहीं की गई है। अल्पसंख्यक कौन है पहले ये तय करना होगा। उपाध्याय सवाल उठाते हैं कि विश्व में 6000 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं तो क्या भारत सरकार 6000 भाषाई अल्पसंख्यक घोषित कर सकती है? इसी प्रकार विश्व में 1000 से ज्यादा मत, पंथ और संप्रदाय हैं तो क्या भारत सरकार विश्व के सभी संप्रदायों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकती है? उपाध्याय कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि भारत का संविधान भारतीयों के लिए बना है। भारतीय धर्मों और भाषाओं के लिए बना है।
देश में किन लोगों को अल्पसंख्यक माना जाता है?
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के सेक्शन 2(सी) में पांच संप्रदायों को अल्पसंख्यक बताया गया है। इन संप्रदायों में मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और इसाई शामिल थे। केंद्र सरकार द्वारा ये नोटिफिकेश 1993 में जारी किया गया था। 2014 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया।
2013 में केंद्र सरकार ने ये कहा था भारत के संविधान में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या नहीं की गई है। हालांकि, कुछ अनुच्छेद में इसका जिक्र जरूर है। जैसे अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यकाें के हितों को सुरक्षित रखने की बात कही गई है। इसमें नागरिकों को किसी विशेष भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है। हालांकि, सुपीम कोर्ट ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों शामिल हैं।
अनुच्छेद 30(1) भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान का निर्माण करने और उसे संचालित करने का अधिकार देता है और संविधान का अनुच्छेद 30(2) कहता है कि केंद्र और राज्य सरकार शिक्षण संस्थानों को मदद देते समय भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा बनाए गए शिक्षण संस्थान के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगी। हालांकि, सरकार का कहना है कि नौकरी और प्रवेश में अल्पसंख्यकों को किसी तरह का लाभ नहीं मिलेगा।
केंद्र का इस पर क्या रुख है?
सुप्रीम कोर्ट में दिए अपने जवाब में केंद्र सरकार ने कहा है कि राज्य सरकारें चाहें तो धार्मिक और भाषाई आधार पर हिंदुओं को राज्य के भीतर अल्पसंख्यक घोषित कर सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट में ये जवाब अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से दाखिल किया गया है। इसमें कहा गया है कि जिन राज्यों में हिन्दू, यहूदी जैसे संप्रदाय अल्पसंख्यक हैं वहां की राज्य सरकारें अपने स्तर पर उन्हें ये दर्जा देने पर विचार कर सकती हैं। जिससे ये समुदाय अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन कर सके।
कौन से राज्यों में हिंदू आबादी अल्पसंख्यक है?
2020 में अश्विनी उपाध्याय ने ये याचिका दायर की। अपनी याचिका में उन्होंने कहा कि 2011 की जनगणना के मुताबिक लक्ष्यद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं।
..तो क्या राज्यों के आधार पर अल्पसंख्यक तय हो सकते हैं?
उपाध्याय कहते हैं कि 2002 में टीएमए पई केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए न कि राष्ट्रीय स्तर पर, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आज तक लागू नहीं किया गया। यही वजह है कि कई राज्यों में जो बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। इसी तरह सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने कहा कि धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की अवधारणा देश की एकता-अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है इसलिए जितना जल्दी हो सके अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का विभाजन बंद होना चाहिए।
असम के मुख्यमंत्री जिलेवार मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी की बात कर रहे हैं क्या ऐसा हो सकता है?
उपाध्याय कहते हैं कि अल्पसंख्यक कौन होगा ये इसकी कोई परिभाषा कहीं नहीं है। जब कोई गाइडलाइन ही नहीं है तो अल्पसंख्यक को आप किसी भी आधार पर परिभाषित कर सकते हैं। हालांकि, राज्य अगर गाइडलाइन बनाते हैं तो इसमें विसंगतियां और बढ़ेंगी। क्योंकि हर राज्य अपनी सहूलियत के हिसाब से अल्पसंख्यकों को परिभाषित करेगा। कोई 15% से कम आबादी होने पर उस आबादी को अल्पसंख्यक बताएगा तो कोई 30% से कम। कोई राज्य के स्तर पर अल्पसंख्यक बनाएगा कोई राज्य के स्तर पर।
उपाध्याय कहते हैं कि इस तरह की विसंगति नहीं इसके लिए अल्पसंख्यक की परिभाषा केंद्र को बनानी चाहिए। वहीं, दूसरी ओर असम के मुख्यमंत्री की ओर से अपनी याचिका में पार्टी बनने की बात पर वह कहते हैं कि असम सरकार चाहे तो उसे एक आवेदन देना होगा।
राज्य अल्पसंख्यक का दर्जा देना शुरू कर देते हैं तो क्या होगा?
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य के भीतर ‘यहूदियों’ को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है। कर्नाटक सरकार ने उर्दू, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, तुलु, लमनी (लम्बादी), हिंदी, कोंकणी और गुजराती भाषाओं को अधिसूचित किया है। ऐसे ही बाकी राज्यों में दर्जा दिया जा सकता है।
(TNS)